Friday, December 8, 2023

कल और आज

जब कभी खो जाता हूं, अपनी एक्टिवा पे निकल जाता हूं,
जहां तक यादें ले जाएं गलियों का चक्कर लगा आता हूं।
सब है अपनी जगह। बस गालियां सड़कें बन गईं हैं, जहां किराने की दुकान थी वहां अब मार्केट हैं, 
रिक्शे अब नही हैं, सलून भी नही, पर वो बरगद का पेड़ वहीं है और उसके नीचे वो मां का मंदिर भी, जो पहले छोटा सा हुआ करता था पर अब शायद भगवान की जरूरतें भी बढ़ गई हैं। 
पुरानी स्कूल की बिल्डिंग, दोस्तों के घर, डॉक्टर साहब का क्लिनिक, क्रिकेट के मैदान और उनके दरमियान मेरा गुज़रा हुआ बचपन, मानो देखता हैं मुझे और पूछता है "कैसे हो"?

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