Wednesday, November 3, 2010

अपनी जुबां से न इकरार करती हो,
छिप छिप कर तुम भी मुझसे प्यार करती हो.

तनहईयों मैं नाम  गुनगुनाती हो मेरा
बज़्म मैं मेरा इंतज़ार करती हो

तेरे चेहरे की तहरीरों पे लिक्खा  है
किस तरह तुम बेक़रार रहती हो

मेरी दीवानगी पर तुम जो हंसती हो
अपनी दीवानगी का इज़हार करती हो

ये इश्क रोग है बुरा मुझसे कहती हो
खुद बीमार मुझे होशियार करती हो

कुछ कहते कहते तेरा ये "कुछ नहीं" कहना
क्यूँ सितम ये हमपे बार बार करती हो

ये ज़माना बड़ा एहसान फरामोश है सखी
क्यूँ अपने ख्वाबों को इसपे निसार करती हो

मैं जानता हूँ सखी तुमने कहा था एक दिन
बहुत से काम तुम अपने मन को मार करती हो

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